Sunday, April 12, 2009

गुलज़ार साहब

न आने कि आहट, न जाने कि टोह मिलती है ,कब आते हो कब जाते हो !ईमली का पेड़ हवा में हिलता है तो ईटों कि दीवार पर छाई का छीटा पड़ता है !और ज़ज्फ़ हो जाता है जैसे सूखी मट्टी पर पानी का कोई कतरे फेंक गया हो !कब आते हो कब जाते हो!!

छाँव-छाँव चला था मैं अपना बदन बचाकर ,कि रूह को एक खूबसूरत सा जिस्म दे दूँ,न कोई सलवट ना कोई दाग, न कोई धूप झुलसे, ना चोट खाए ,ना ज़ख्म छुए ना दर्द पहुंचे !बस एक कोरी -कवाँरी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं ,मगर तपी जब दोपहर दर्दो कि ,दर्द की धूप से गुजरा ,तो रूह को छाँव मिल गई है !अजीब है दर्द और तस्कीं का साझा रिश्ता ,मिलेगी छाँव तो बस कहीं धूप न मिलेगी.

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